हाल ही में कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान की अपमानजनक राजनीति ने देश को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हमारे पास एक कार्यात्मक लोकतंत्र है? क्या हमने कभी भी इन ख़बरों के परे जाकर मूल समस्या के बारे में सोचा है? क्या हमने इस व्यवस्था के बारे में सोचा है जो इस शर्मनाक आचरण को संभव बनाती है? जिस संसदीय प्रणाली को हमने अंग्रेजों से उधार लिया था, वह भारतीय परिस्थितियों में काम नहीं कर रही है। यह बदलाव की मांग करने का समय है।
संसदीय प्रणाली में स्पष्ट रूप से परिभाषित राजनीतिक दल होते हैं, जो नीतियों और प्राथमिकताओं के आधार पर एक दूसरे से बिलकुल अलग होते हैं, लेकिन भारत में नेताओं के लिए पार्टी सिर्फ एक सुविधाजनक लेबल है जिसे वे इतनी जल्दी जल्दी अपनाते और छोड़ते हैं जैसे किसी सिनेमा में कोई स्टार अपने कपडे बदलता हो। एक पार्टी से दूसरी पार्टी में कूदना अन्य संसदीय लोकतंत्रों में एक बहुत बड़ी बात होगी लेकिन हमारे देश में यह एक आम बात है।
अगर संसद में प्रवेश करने का मुख्य कारण सिर्फ सरकारी कार्यालय प्राप्त करना और कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल करना है तो इसमें कुछ विशिष्ट समस्याएं हैं:
सबसे पहले, यह कार्यकारी (executive) पदों को उन लोगों तक सीमित करता है, जो चुनाव से जीत कर आ रहे हैं ना की जो सक्षम हैं। प्रधानमंत्री अपनी पसंद का कैबिनेट नियुक्त नहीं कर सकते; उन्हें कई दलों के राजनीतिक नेताओं की इच्छाओं को पूरा करना होता है।
दूसरा,यह हॉर्स ट्रेडिंग (नेताओं के खरीदने-बेचने) को बढ़ावा देता है। 1985 का दल बदल विरोधी कानून इस समस्या का इलाज करने में विफल रहा है, सौदेबाजी का हाल यह है कि एक सरकार को गिराने के लिए पर्याप्त विधायकों को इस्तीफा दिलवाया जाता है, उन्हें मंत्री पद देने का वादा करके।
तीसरा, विधि निर्माण (legislation) व्यवस्था पर इसका बुरा असर पड़ता है। अधिकांश कानून नौकरशाह बनाते हैं और उन पर संसद में बहुत ही कम चर्चा होती है। बिल सिर्फ कुछ मिनटों की बहस (डिबेट) के बाद ही पास कर दिए जाते हैं। जो पार्टी सत्ता में है वह बिल के पक्ष में मतदान करने के लिए एक आदेश (व्हिप) जारी करती है, और क्योंकि इस आदेश को ना मानने से सांसदों की सीट जा सकती है, तो वे आँखें बंद करके अपनी पार्टी के निर्देशानुसार बिल के पक्ष में ही अपना वोट दे देते हैं। आपके क्षेत्र में आपके द्वारा ही चुना गया सांसद महज एक रबर स्टांप होता है, वह अपने मन की बात को लागू नहीं कर सकता, संसद में अपने या आपके मन मुताबिक वोट नहीं कर सकता। वह केवल वही करता है जो उसे पार्टी द्वारा करने के लिए कहा जाता है।
चौथा, विपक्षी दलों के लिए संसद या विधानसभा विचार और बहस करने की जगह होने की बजाय अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर काम में बाँधा डालने का एक मंच है। सिस्टम उन्हें बहस के बजाय भीड़ बनाकर नारे लगाने और कार्य बाधित करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
हमारे पास लोकतंत्र की एक ऐसी प्रणाली होनी चाहिए जिसमें नेता सत्ता में रहने के बजाय शासन-विधि पर ध्यान केंद्रित कर सकें। एक राष्ट्रपति प्रणाली की ज़रूरत, मेरे विचार में, आज से ज़्यादा कभी स्पष्ट नहीं हुई। गठबंधन और समर्थन की राजनीति के बजाय अगर नई दिल्ली और हर राज्य, कस्बों और शहरों में एक सीधे चुना हुआ मुख्य कार्यकारी हो तो कार्यकाल में स्थिरता होगी। एक निश्चित अवधि के बाद, जनता उस व्यक्ति को सरकार बचाने के राजनीतिक कौशल के बजाय, लोगों के जीवन को उसने कैसे बेहतर किया है इस बात पर आंक पाएगी।
लिबरल लोकतांत्रिकों द्वारा उठायी गयी एकमात्र गंभीर आपत्ति यह है कि राष्ट्रपति प्रणाली के साथ तानाशाही का खतरा बढ़ जाता है। उनकी कल्पना में एक ऐसे अत्याचारी राष्ट्रपति की छवि है जिसे संसदीय हार का सामना नहीं करना पड़ेगा और जिस पर जन मत का कोई असर नहीं होगा। लेकिन यह तर्क आधारहीन है। एक राष्ट्रपति की शक्तियां राज्यों में सीधे चुने गए मुख्य कार्यकारी अधिकारियों से संतुलित की जा सकती हैं, जिन्हे उनकी पार्टी द्वारा निकला नहीं जा सकता।
हमारे पास एक ऐसा लोकतंत्र होना चाहिए जो लोगों को प्रगति प्रदान करे। संसदीय से राष्ट्रपति प्रणाली में बदलाव एक क्रियाशील लोकतंत्र को सुनिश्चित करने का सबसे अच्छा तरीका है।
यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेजी में प्रथम बार Indian Express में प्रकाशित हुआ था। इसके लेखक शशि थरूर हैं, जो केरल से लोक सभा सांसद हैं ।