महामारी के दौरान संसदीय प्रणाली बीमार?

पूरे विश्व में विभिन्न देशों की संसदें काम कर रही हैं और अपनी अपनी सरकारों से COVID 19 महामारी के दौरान उनके द्वारा उठाये गए क़दमों पर सवाल उठा रही हैं। कनाडा की संसद की पहली लॉकडाउन मीटिंग अप्रैल के अंत में हुई जिसमे 338 में से 280 सदस्यों ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग की मदद से भाग लिया और सरकार से तीन घंटे तक सवाल पूछे। यूनाइटेड किंगडम की संसद में भी वीडियो के द्वारा हाज़िरी लग रही है। इनके आलावा और भी बहुत सारे देशों ने आपसी दूरी सुनिश्चित करके (हर पार्टी से कुछ ही MP उपस्थित होते हैं) या वीडियो के ज़रिये संसदीय सत्र करवाए हैं जैसे – फ्रांस, इटली, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड।

लेकिन भारत की संसद – जिसे गर्व है विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रतिनिधि होने का – इन देशों की सूची में शामिल नहीं है।

हमारी शासन प्रणाली में संसद की केंद्रीय भूमिका है। संसद ही वह संस्थान है जो सरकार के निर्णयों की जाँच करता है और ज़रूरत पड़ने पर उन्हें चुनौती भी देता है। हमारे संविधान ने राष्ट्रपति शासन प्रणाली (presidential) पर संसदीय प्रणाली (parliamentary) को प्राथमिकता दी, तर्क यह था कि जहां राष्ट्रपति प्रणाली एक उच्च स्तर की स्थिरता प्रदान करती है, वहीं संसदीय प्रणाली सवालों और बहसों के माध्यम से सरकार को दैनिक आधार पर उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाती है। दशकों से, हमारी संसद ने जवाबदेही की विभिन्न प्रक्रियाओं को विकसित किया है । आज का यह सच कि संसद दो महीने से अधिक समय से नहीं मिली हैं, यह दर्शाता है कि सरकारी कार्यों की जांच नहीं हो रही है। 

संसद द्वारा राष्ट्रीय कानून बनाए जाते हैं। इस समय केंद्र सरकार द्वारा सभी कदम आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत उठाए जा रहे हैं। लेकिन यह क़ानून महामारी को संभालने के लिए नहीं बनाया गया था। सरकार का तर्क यह है कि उसके पास कोई विकल्प नहीं था क्योंकि ऐसा कोई अन्य कानून नहीं है जो सरकार को देश भर में लॉकडाउन लागू करने की शक्तियां प्रदान करता हो । लेकिन सोचने वाली बात यह है कि संसद राष्ट्रीय तालाबंदी की घोषणा के एक दिन पहले तक मिल रही थी। वह इस नयी परिस्थिति के लिए एक उपयुक्त अधिनियम पारित कर सकती थी। यह कई अन्य देशों ने भी किया है। 

संविधान के हिसाब से सरकार द्वारा किये जाने वाले सभी खर्च संसद की अनुमोदन या अनुमति से होने चाहिए। वर्तमान में सरकार ने महामारी और तालाबंदी की वजह से फैले आर्थिक संकट को दूर करने के लिए कई उपायों की घोषणा की है। लेकिन इन उपायों की संसदीय जांच नहीं हुई और ना ही इनको संसद से किसी प्रकार की अनुमोदन मिला।

सांसदों का कर्तव्य है कि वे नीति को आकार दें और राष्ट्रहित में सरकार का मार्गदर्शन करें। वे संसद में मुद्दों को उठाकर आम लोगों की चिंताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। महामारी के परिणामस्वरूप देश गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। इनमें महामारी को रोकने के तरीके, संक्रमित लोगों का इलाज कैसे किया जाए, और वायरस से जान-माल के नुकसान को कैसे कम किया जाए जैसे सवाल शामिल है। सवाल यह भी है कि लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्था कैसे प्रभावित हो रही है। आबादी के सबसे कमजोर वर्ग पर प्रभाव को कम करने का भी बड़ा मानवीय सवाल देश के समक्ष है। प्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार, परिवहन प्रदान नहीं किए जाने, पुलिस द्वारा परेशान किए जाने और उनकी गरिमा छीनने की भी अनेक खबरें आई हैं। इन सभी तरह के संकटों को कम करने के लिए ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है। संसद वह मंच है जहाँ इस तरह के मुद्दों पर चर्चा होनी चाहिए और कार्ययोजना पर सहमति भी बननी चाहिए।

सवाल यह है कि हमारे सांसद खुद को कैसे देखते हैं। अगर उन्हें लगता है कि वे लोगों के प्रहरी हैं, तो उन्हें अपने संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने का एक नया रास्ता बनाना चाहिए। पिछले तीन महीनों में, केंद्र और राज्य सरकारों ने COVID-19 महामारी से निपटने के लिए 5,000 से अधिक नोटिफिकेशन जारी किए हैं। इन निर्णयों की उपयुक्तता की संसद और इसकी समितियों द्वारा जांच ज़रूर की जानी चाहिए। साधारण समय में, संसद का अगला सत्र जुलाई के दूसरे भाग में होता। और आज की असाधारण परिस्थितियों में भी संसद को जल्द ही मिलना चाहिए। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ विश्व के लिए सूचना प्रौद्योगिकी प्रदाता होने पर भी गर्व करता है। ऐसे में यह जरूरी है कि भारतीय संसद देश की आईटी ताकत का इस्तेमाल कर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करे।

(शुक्रवार को, लोक लेखा समिति या पीएसी, जो सबसे महत्वपूर्ण संसदीय पैनल में से एक है, देशव्यापी तालाबंदी के बाद पहली बार मिली। यह सरकार की COVID-19 प्रतिक्रिया या नए PM CARES फंड की स्थापना की जांच करने पर एक सहमति बनाने में विफल रही।)

यह लेख मौलिक रूप से अंग्रेजी में प्रथम बार The Hindu में प्रकाशित हुआ था । PRS संस्थान के M.R. Madhavan इसके लेखक हैं। 

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